D.News Dehhradun: हम जो वस्त्र धारण करते हैं, उनका भी अपना लोक विज्ञान है। दरअसल, वस्त्र किसी भी क्षेत्र और समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक के साथ आर्थिक पृष्ठभूमि को परिलक्षित करते हैं। वस्त्रों से इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं और संबंधित क्षेत्र के भौगोलिक परिवेश का आकलन भी होता है। हम आपका परिचय उत्तराखंडी पहनावे के इसी पारंपरिक स्वरूप से करा रहे हैं। साथ ही यह बताने का प्रयास भी किया गया है कि हिमालयी क्षेत्र की पारंपरिक बारहनाजा पद्धति का जीवन में क्या महत्व है और क्यों इसे संपूर्ण कृषि संस्कृति का दर्जा दिया गया है।
हर समाज की तरह उत्तराखंड का पहनावा (वस्त्र विन्यास) भी यहां की प्राचीन परंपराओं, लोक विश्वास, लोक जीवन, रीति-रिवाज, जलवायु, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, शिक्षा व्यवस्था आदि को प्रतिबिंब करता है। पहनावा किसी भी पहचान का प्रथम साक्ष्य है। प्रथम या प्रत्यक्ष जो दृष्टि पड़ते ही दर्शा देता है कि ‘हम कौन हैं।’ यही नहीं, प्रत्येक वर्ग, पात्र या चरित्र का आकलन भी वस्त्राभूषण या वेशभूषा से ही होता है। पहनावा न केवल विकास के क्रम को दर्शाता है, बल्कि यह इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं के आकलन में भी सहायक है। आदिवासी जनजीवन से आधुनिक जनजीवन में निर्वस्त्र स्थिति से फैशन डिजाइन तक की स्थिति तक क्रमागत विकास देखने को मिलता है।
आदिम युग से शुरू होती है वस्त्र विन्यास की परंपरा
इस हिसाब से देखें तो उत्तराखंड की वस्त्र विन्यास परंपरा आदिम युग से ही आरंभ हो जाती है। यहां विभिन्न जनजातियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र एवं आभूषण धारण करने की परंपरा प्रचलन में रही है। मसलन कुमाऊं व गढ़वाल की बोक्सा, थारूअथवा जौहारी जनजाति की महिलाएं पुलिया, पैजाम, झड़तार छाड़ जैसे आभूषण धारण करती हैं। पुलिया अन्य क्षेत्रों में पैरों की अंगुलियों में पहने जाने वाले आभूषण हैं, जिनका प्रचलित नाम बिच्छू है। गढ़वाल में इन्हें बिछुआ तो कुमाऊं में बिछिया कहते हैं। इसके अलावा गले में पहनी जाने वाली सिक्कों की माला भी उत्तराखंड की सभी जनजातियों में प्रचलित है। गढवाल में इसे हमेल और कुमाऊं में अठन्नीमाला, चवन्नीमाला, रुपैमाला, गुलुबंद, लाकेट, चर्यों, हंसुली, कंठीमाला, मूंगों की माला जैसे नामों से जाना जाता है।
उत्तराखंड के पारंपरिक परिधान
पारंपरिक रूप से उत्तराखंड की महिलाएं घाघरा व आंगड़ी और पुरुष चूड़ीदार पैजामा व कुर्ता पहनते थे। समय के साथ इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी ने ले लिया। जाड़ों (सर्दियों) में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यों के अवसर पर कई क्षेत्रों में आज भी शनील का घाघरा पहनने की रवायत है। गले में गलोबंद, चर्यो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुंडल पहनने की परंपरा है। सिर में शीशफूल, हाथों में सोने या चांदी के पौंजी व पैरों में बिछुवे, पायजेब, पौंटा पहने जाते हैं। घर-परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परंपरा है। विवाहित स्त्री की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का रिवाज भी यहां आम है।