D.NEWS DEHRADUN रुड़की शहर के सिविल लाइंस बाजार में प्राचीन श्री सिद्धेश्वर महादेव शिव मंदिर स्थापित है। मंदिर से जुड़े अभिलेखों के अनुसार, यहां पर स्वयंभू शिवलिंग है। मंदिर के प्रति आस्था का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहां सामान्य दिनों में तो श्रद्धालुओं की भीड़ रहती ही है, श्रवण मास में यहां स्थित शिवलिंग में जलाभिषेक के लिए शहर के अलावा दूर-दराज के क्षेत्रों से भी भारी संख्या में शिव भक्त पहुंचते हैं।
वहीं, श्रवण मास की कांवड़ यात्र के दौरान यहां पर कांवड़ सेवा दल अनाज मंडी की ओर से 12-13 दिनों तक कांवड़ियों के लिए शिविर लगाया जाता है। जिसमें हरिद्वार और नीलकंठ से गंगाजल लेकर आने वाले कांवड़ियों के लिए तीनों समय भंडारे, चिकित्सा, स्नान और विश्रम की व्यवस्था होती है।
इतिहास
ऐसा माना जाता है कि सिविल लाइंस में प्राचीन श्री सिद्धेश्वर महादेव शिव मंदिर में शिवलिंग ब्रिटिश काल से ही स्थापित है। वहीं, जब देश को स्वतंत्रता मिली तो यहां पर शिवलिंग होने पर शुरुआत में छोटा सा मंदिर बनाया गया और यहां पर आकर लोगों ने भगवान शिव की आराधना करनी शुरू कर दी। जो भी यहां पर सच्चे मन और भावना से मन्नत मांगता तो उसकी मनोकामना पूर्ण होती। ऐसे में धीरे-धीरे मंदिर की मान्यता चहुं ओर फैलने लगी और यहां पर श्रद्धालुओं का तांता लगना शुरू हो गया। वहीं श्री सनातन धर्म रक्षिणी सभा के अस्तित्व में आने के बाद सभा की ओर से मंदिर का विस्तार कर उसे भव्य रूप दिया गया। वर्तमान में मंदिर की मान्यता और भव्यता हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है।श्रवण मास प्रारंभ होने से पहले ही मंदिर में इसको लेकर जोर-शोर से तैयारियां होने लगती हैं। सावन में मंदिर की भव्य रूप से साज-सजावट की जाती है। कांवड़ सेवा दल की ओर से मंदिर में गत 48 साल से कांवड़ियों के लिए शिविर लगाया जाता है। ऐसे में कांवड़ यात्र का आगाज होने से पहले ही सभी सदस्यों को जिम्मेदारियां सौंप दी जाती हैं। जिससे कि कांवड़ियों के लिए लगाए गए शिविर का सफल संचालन करने के साथ ही कांवड़ियों की यात्र को सुगम बनाया जा सके।
शिवलिंग स्वयंभू है
पुजारी पंडित श्वेत मिश्र का कहना है कि जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है कि प्राचीन श्री सिद्धेश्वर महादेव शिव मंदिर एक प्राचीन मंदिर है। यहां पर जो कोई भी भक्त सच्चे मन और भाव से मन्नत मांगता है तो वह सिद्ध होती है। मंदिरों से जुड़े अभिलेखों के अनुसार यहां पर शिवलिंग को किसी ने स्थापित नहीं किया बल्कि शिवलिंग स्वयं भू है।
श्रावण का प्रत्येक दिन लिए है पूर्णता
महामंडेलश्वर योगी यतींद्रानंद गिरी महाराज (पंचदशनाम जूना अखाड़ा, रुड़की) ने बताया कि शास्त्रों के अनुसार, श्रावण मास अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है। श्रवण नक्षत्र और सोमवार से भगवान शिव शंकर का गहरा संबंध है। इस मास का प्रत्येक दिन पूर्णता लिए हुए होता है। धर्म और आस्था का अटूट गठजोड़ इस माह में दिखाई देता है। इस माह की प्रत्येक तिथि किसी न किसी धार्मिक महत्व के साथ जुड़ी हुई होती है। हर दिन व्रत और पूजा पाठ के लिए महत्वपूर्ण रहता है। हिंदू पंचांग के अनुसार, सभी मासों को किसी न किसी देवता के साथ संबंधित देखा जा सकता है।
श्रावण मास को भगवान शिव जी के साथ के रूप में भी देखा जाता है। यह माह आशाओं की पूर्ति का समय होता है। जिस प्रकार प्रकृति ग्रीष्म के थपेडों को सहती हुई सावन की बौछारों से अपनी प्यास बुझाती हुई असीम तृप्ति और आनंद को पाती है, उसी तरह प्राणियों की इच्छाओं के सूनेपन को दूर करने के लिए यह माह भक्ति और पूर्ति का अनुठा संगम दिखाता है। भगवान शिव इसी माह में अपनी अनेक लीलाएं रचते हैं। इस महीने गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, पंचाक्षर मंत्र इत्यादि शिव मंत्रों का जाप शुभ फलों में वृद्धि करने वाला होता है। पूर्णिमा तिथि का श्रवण नक्षत्र के साथ योग होने पर श्रावण माह का स्वरुप प्रकाशित होता है।
शिवलिंग का रुद्राभिषेक भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। शिवलिंग का अभिषेक महाफलदायी माना गया है। इन दिनों अनेक प्रकार से शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है जो भिन्न-भिन्न फलों को प्रदान करने वाला होता है। जैसे कि जल से वर्षा और शीतलता कि प्राप्ति होती है। दुग्धाभिषेक और घृत से अभिषेक करने पर योग्य संतान कि प्राप्ति होती है। गन्ने के रस से धन संपदा की प्राप्ति होती है। कुशोदक से समस्त व्याधि शांत होती है। दधि से पशु धन की प्राप्ति होती है। शहद से शिवलिंग पर अभिषेक करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इस श्रावण मास में शिव भक्त ज्योतिर्लिंगों का दर्शन और जलाभिषेक करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त करता है। शिव का श्रावण में जलाभिषेक के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है।
जब देवों ओर राक्षसों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन किया तो समुद्र से अनेक पदार्थ उत्पन्न हुए। इसमें अमृत कलश से पूर्व कालकूट विष भी निकला उसकी भयंकर ज्वाला से समस्त ब्रह्मांड जलने लगा। इस संकट से व्यथित समस्त जन भगवान शिव के पास पहुंचे और उनके समक्ष प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने के लिए उस विष को अपने कंठ में उतार लिया। इससे उनका कंठ नीला हो गया। समुद्र मंथन से निकले उस हलाहल के पान से भगवान शिव ने भी तपन को सहा। मान्यता है कि वह समय श्रावण मास का समय था। उस तपन को शांत करने के लिए देवताओं ने गंगाजल से भगवान शिव का पूजन व जलाभिषेक आरंभ किया। तभी से यह प्रथा आज भी चली आ रही है।