D.NEWS DEHRADUN: हिंदी से हमारा लगाव लाजिमी है, मातृभाषा के रूप में इसकी गोद में हम पले-बढ़े हैं। हिंदी साहित्य की बात करें तो एक ओर हिंदी किताबों के न बिकने का पुराना रोना है। वहीं दूसरी ओर ऐसी भी किताबें हैं, जिन्हें लोग ढूंढ़कर और मांगकर पढ़ रहे हैं। कोई भी साहित्य तभी अच्छा होता है, जिसमें कोरी कल्पना न होकर निजी जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमते चरित्र हों। अभी भी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, शरतचंद्र, रामधारी सिंह दिनकर, धर्मवीर भारती जैसे लेखकों की किताबें काफी लोकप्रिय हैं। बुक स्टोर और ऑनलाइन के जरिए से कालजयी साहित्य को ऑर्डर किया जा रहा। दून लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन जयभगवान गोयल का कहना है कि युवा वर्ग में सर्वकालिक साहित्यकारों की किताबों की ओर झुकाव देखने को मिलता है।
बिमल रतूड़ी बताते हैं कि जहां तक कालजयी उपन्यासों की बात है, प्रेमचंद ने हमेशा से ही मुझे रोमांचित किया है। उनकी कहानियों में चरित्र और घटनाएं दोनों में ही गजब का आकर्षण देखने को मिलता है। उनकी ‘नमक का दारोगा’ कहानी में सत्यमेव जयते की वास्तविकता को सही से समझाया गया है।
राज्यपाल बेबी रानी मोर्य ने समस्त प्रदेशवासियों को हिंदी दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं दीं। उन्होंने कहा कि हिंदी विश्व की सबसे प्रचलित भाषाओं में एक है। हमें इसकी लोकप्रियता को बनाए रखना चाहिए। हमें अपने परिवारों में हिंदी को बढ़ावा देना चाहिए। आज हिंदी मुश्किल दौर से गुजर रही है। आधुनिकता की होड़ में हम हिंदी के महत्व को भूलने लगे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। जब हम हिंदी का प्रयोग करेंगे, तभी दुनिया हिंदी के महत्व को समझेगी।
वहीं, सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने हिंदी दिवस की सभी प्रदेशवासियों को शुभकामनाएं दीं। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा भारतवासियों के लिए सम्मान, स्वाभिमान और गर्व का प्रतीक है। हिंदी से ही सवा सौ करोड़ देशवासियों की पहचान है। हमें अपने परिवार में युवा पीढ़ी को हिंदी का प्रयोग करने को प्रोत्साहित करना चाहिए। युवा पीढ़ी जितनी भी आधुनिक शिक्षा क्यों न ग्रहण करें, उन्हें अपनी जड़ों से कभी दूर नहीं जाना चाहिए।
वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत कहते हैं कि आज विभिन्न मंचों पर हिंदी के प्रचार के लिए बहुत से नारे लगते हैं। वास्तव में ङ्क्षहदी को व्यवहार में लाने से उसका हित होगा, ना कि खोखली बयानबाजी से। हिंदी का सबसे ज्यादा नुकसान हिंदीभाषियों ने ही किया है। हिंदी भाषी दूसरी भाषा स्वीकार नहीं करते। स्वेच्छा और आपसी सद्भाव से प्रेरित होकर हिंदी भाषी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को सीखें और गैर हिंदी भाषी भी इसी प्रकार हिंदी को अपनाएं।
क्षेत्रीय भाषाओं के प्रचलित लोकप्रिय शब्दों को ग्रहण कर हिंदी के शब्द भंडार को बढ़ाएं। इससे हिंदी ही समृद्ध होगी। हमें अखंड भारत की तरह अखंड हिंदी की जरूरत है। भाषा को सुबोध और सुगम बनाना भी आज के समय की मांग है। यह विडंबना ही है कि आज देश की शिक्षा ही देश की राष्ट्रीय भाषा में नहीं है। हिंदी फिल्म सब समझते हैं, पर वह हिंदी में बातचीत नहीं करते। इस स्थिति में हिंदी का प्रसार कैसे होगा। ङ्क्षहदी के लिए एक ईमानदार प्रयास की जरूरत है।
वरिष्ठ साहित्यकार हेमचंद्र सकलानी ने कहा कि कोई भाषा कितनी समृद्ध, संपन्न और सुंदर है, यह उसके जन संपर्क, बोल चाल, कार्यालयों में प्रयोग से, उसमें सृर्जित साहित्य से पता चलता है। इसीलिए किसी ने कहा है ‘अंधकार है वहां जहां आदित्य नहीं, मुर्दा है वह देश जहां साहित्य नहीं।’ स्वाधीनता के बाद हमें अपना राष्ट्र मिला, राष्ट्र ध्वज मिला, राष्ट्र गान मिला, अपना संविधान मिला पर राष्ट्रभाषा के लिए 70 वर्ष बाद भी हमें संघर्ष करना पड़ रहा है।
हमारा देश एक बहुत बड़े भूभाग वाला देश है, जिससे अनेक प्रांतों में कई धर्म, बोली, भाषा, संस्कृति वाले लोग रहते हैं। इन सबको एकता के सूत्र में पिरोने की, भावात्मक रूप से जोडऩे के लिए एक सर्वसम्मत भाषा, संपर्क भाषा, एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है, जो हिंदी हो सकती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि अहिंदी प्रांतों के स्कूलों में प्रारंभिक स्तर से बच्चों में इसके प्रति रुचि जगाई जाए। हिंदी के अलावा कोई ऐसा अन्य सूत्र हमारे पास नहीं, जो देश को शक्तिशाली रूप से एकता के सूत्र में जोड़ सके।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रद्मश्री लीलाधर जगूड़ी आज का समय हिंदी भाषा के लिए चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि आज भारतवासी पश्चिमी संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहे हैं और अपनी संस्कृति को भूल रहे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन, मुझे खुशी है कि देश में हिंदी सिनेमा, साहित्य ने हिंदी को जीवित रखने में ही नहीं, बल्कि मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई है। आज हिंदी 20 से ज्यादा राज्यों में मुख्य भाषा के तौर पर प्रयोग की जाती है। दक्षिण भारत के राज्यों में हिंदी का प्रचलन बढ़ाने को सरकारों को प्रयास करने चाहिए।
कथाकार मुकेश नौटियाल कहते हैं कि हिंदी के प्रचार-प्रसार में बाजार की मुख्य भूमिका रही है। बात हिंदी सिनेमा की हो या गानों की। सिनेमा ने हिंदी को खास पहचान दिलाई है। मेरा मानना है कि हिंदी के संरक्षण में सरकारों की ओर से किए जा रहे प्रयास पूरी तरह से विफल रहे हैं। इसका सबसे उपयुक्त उदाहरण सरकारी स्कूलों की जीर्ण-शीर्ण अवस्था है। जब तक हिंदी भाषा को व्यावसायिक शिक्षा के मुख्य स्रोत के रूप में प्रोत्साहन नहीं मिलेगा, हिंदी के साथ न्याय नहीं हो पाएगा।
कथाकार जितेन ठाकुर ने कहा कि मेरा मानना है कि हिंदी की राजभाषा के रूप में स्थिति खराब है, लेकिन संपर्क भाषा के रूप में संतोषजनक। राजभाषा के रूप में हिंदी के सफल न होने के पीछे कई मुख्य कारण हैं। पहला यह कि हिंदी भाषा के अनुवाद में कठिन शब्द प्रयोग में आते हैं। दूसरा यह कि सरकार ने किसी भी व्यवस्था में हिंदी को अनिवार्य रूप में लागू नहीं किया है। इसे वैकल्पिक रूप से रखा गया है। इसमें इच्छाशक्ति का अभाव झलकता है। अहम वजह यह भी है कि हिंदी के संरक्षण की जिन अधिकारियों को जिम्मेदारी सौंपी गई है, वह स्वयं हिंदी को जीवन में महत्व नहीं देते। वहीं, संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सफल साबित होती है। क्योंकि आज भी देश में अधिकांश आबादी हिंदी को ही मुख्य भाषा के रूप में प्रयोग करती है।
जिलाधिकारी एसए मुरुगेशन ने कहा कि हिंदी को बढ़ावा देने के लिए स्कूलों में हिंदी साहित्य पर काम करने की जरूरत है। हमारे अधिकांश आदेश अंग्रेजी भाषा में होते हैं। शासनादेश से लेकर कानून से जुड़ी पुस्तकें भी हिंदी की बजाय अंग्रेजी भाषा में हैं। इससे कई बार हिंदी पिछड़ जाती है। एक देश में भिन्न-भिन्न संस्कृति और शिक्षा दी जाती है। ऐसे में हिंदी को अनिवार्य किया जाना चाहिए।
हम साउथ के रहने वाले हैं। ऐसे में स्थानीय भाषा के अलावा अंग्रेजी को ज्यादा प्राथमिकता दी गई। अब नौकरी करते हुए हिंदी भाषी और यहां तक कि क्षेत्रीय बोली बोलने वालों से कई बार नाता पड़ता है। इससे दिक्कतें तो आती हैं, मगर हिंदी ऐसी भाषा है, जो दुनियाभर में जानी जाती है। हिंदी को बढ़ावा देने के लिए हमें अपने घर, दफ्तर और समाज में प्राथमिकता में रखना होगा। खासकर स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य रूप से शामिल करने पर जोर देना होगा।