देवभूमि जनसंवाद न्यूज़ देहरादून : आज के पत्रकार और पत्रकारिता पर काफी हद तक लागू होता है। राहत इंदौरी ने जब यह शे’र होगा तब खबरों का साधन अखबार ही हुआ करता रहा होगा। आज अखबार ही नहीं टेलीविजन के माध्यम से न्यूज चैनल,इंटरनेट के माध्यम से न्यूज पोर्टल और मोबाइल के माध्यम से ये तीनों मुट्ठी में आ गए हैं जिसे हम सोशल मीडिया कहते हैं। वैसे अखबार का इतिहास लगभग दो सौ साल का है। आज ही के दिन कलकत्ता से उदन्त मार्तण्ड नाम का पहला अखबार प्रकाशित हुआ था इसलिए 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की तरह यह भी एक रस्म बनकर रह गया है। बहुत से लोग अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं को बधाई देते हैं तो पत्रकार लोग आपस में एक-दूसरे को बधाई/शुभकामनाएं देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। अगर पेशे के रूप में ही लें तो इस पेशे ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसका कारण था इसकी मिशनरी भावना। आजादी के पूर्व पत्रकार की भूमिका देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराना था। तब अखबारों के संपादक साहित्यकार, राजनेता और समाजसेवक हुआ करते थे। जब देश आजाद हो गया तो अखबारों की भूमिका भी बदल गयी। बदली भूमिका में भी अखबारों का नैतिक पतन नहीं हुआ था। हालांकि कुछ बड़े अखबार औद्योगिक घरानों के थे। इनमें से अधिकतर का लगाव पत्रकारिता से था तो कुछ ने अपने धंधों की रक्षा के लिए अखबार से जुड़े रहे। तब अखबारों में संपादकों का महत्व हुआ करता था। मालिक का दखल न के बराबर था। आजादी के बाद बिड़ला बड़ा औद्योगिक घराना था पर किसी का सीधा नहीं था यदि था भी तो नाममात्र का। जब से अखबारों के प्रकाशन की श्रृंखला (फलां फलां शहरों से एक साथ प्रकाशित) शुरू हुई तब से अखबारों का चरित्र बदला। धीरे-धीरे संपादक नामक संस्था/पद अपना महत्व खोने लगे। अखबारों में मैनेजरों का पदार्पण हुआ। चूंकि मैनेजर मालिकों के गुर्गे होते थे इसलिए संपादक पर भारी पड़ते-पड़ते इन्हें निगलने लगे। गुर्गों के माध्यम से संपादकों पर नियंत्रण रखने वाले मालिक अब सीधे दखल देने लगे। पहले अखबार के हर विभाग पर संपादक की पकड़ रहती थी अब विज्ञापन का मैनेजर अलग हो गया, सर्कुलेशन का अलग और प्रोडेक्शन का अलग। यानि संपादक का इन चीजों से प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष कोई मतलब नहीं रह गया।
पहले संपादक और उप संपादक ही होते थे अपने लोगों को हर जगह बैठाने के लिहाज से भांति-भांति के संपादकों का उदय होने लगा। संपादक, स्थानीय संपादक, समाचार संपादक, उप समाचार संपादक, संपादक समाचार, संपादक विचार, प्रबंध संपादक, कार्यकारी संपादक, कार्यशील संपादक, समूह संपादक, कला संपादक, फोटो संपादक आदि-आदि। जैसे कर्मचारियों की एकता कम करने के लिए सरकारी ने विभागों में कई फांड़ (जल संस्थान-जल निगम) कर दिये वैसे ही अखबार में रिपोर्टिंग अलग हो गया और डेस्क अलग हो गया। अलग होने से इनके संगठन भी अलग हो गए। संगठन अलग हुए तो एकजुटता पर भी बुरा असर पड़ा। रही-सही कसर मशीनीकरण ने निकाल ली। इसके लिए ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं। राजीव गांधी के तथाकथित “कम्प्यूटर क्रांति ” को ही लें। इस कम्प्यूटर क्रांति ने मालिकों का ही भला किया, या यूं कहें कि जितने भी यंत्र आये सबने मालिकों की ही तिजोरी भरी। अखबारों में कम्प्यूटर ने 1987 के आस-पास संपादकीय विभाग के समानांतर प्रूफ विभाग को निगल लिया। तो 1999 के आस-पास पोस्टिंग डीटीपी को। इससे मालिक का खर्चा बचा पर कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ गया। डेस्क पर काम करने वाले सब एडिटर को रिपोर्टर की खबर को पढ़ना पढ़ता , सुधारना पड़ता, पेज लगाना पड़ता। पहले यह काम प्रूफ रीडर, पेस्टर व डीटीपी ऑपरेटर करते थे। नयी तकनीक ने तीन-तीन विभागों को निगल लिया। इन विभागों में कर्मचारियों की संख्या अच्छी-खासी होती थी। मशीनें की निर्ममता, निष्ठुरता व संवेदनशीलता यही नहीं रुकी। सेटेलाइट तकनीक ने कोढ़ में खाझ का काम किया। पूरा का पूरा पेज मिनटों में देश के एक कोने से दूसरे कोने भेजने की सुविधा हो गयी। इस सुविधा ने भी मालिकों का ही भला किया। स्थानीय समाचारों को छोड़ कर सभी समाचारों (संपादकीय, खेल, कामर्स, देश-विदेश मनोरंजन आदि) के पेज मुख्यालय से आने लगे। यानी किसी अखबार के 12 स्थानों पर छपाई की मशीन लगी है तो सभी जगहों पर सभी पेजों के लिए कर्मचारी रखने की जरूरत नहीं।एक-एक प्रिटिंग स्टेशन से 10-10,12-12 उप संस्करण निकलने लगे। कुल मिलाकर मशीनों ने कर्मचारियों का ही सत्यानाश किया। यानि पूंजीवादी व्यवस्था में मशीनें कर्मचारियों की दुश्मन हैं।
जब राहत इंदौरी जी ने उक्त शे’र लिखा था तब (हो सकता है) न्यूज़ चैनल न रहे हों। अब जब हैं तो इनपर भी सरसरी निगाह से एक नजर डाल लें। सरसरी इसलिए कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का अनुभव नहीं। एक दर्शक के नाते ही कुछ कहा जा सकता है। अखबारों में हम खबर पढ़ते हैं वो भी 24 घंटे बाद लेकिन टीवी पर हम देखते हैं और सुनते भी हैं इसलिए ये हमें ज्यादा प्रभावित करती हैं। जिस तरह से अखबारों के बढ़ते पेजों और संस्करणों ने खबरों का महत्व कम किया तो 24×7 ने खबरिया चैनलों का। रही-सही कसर इन्हीं चैनलों के क्षेत्रीय भाषाओं वालों ने खत्म कर दी। 1980 के दशक में दूरदर्शन पर बमुश्किल दो बार समाचार आते थे सुबह आठ और रात पौने नौ बजे। इसका इंतजार करता था हर समाचार प्रेमी। आज लगातार 3-4 घंटे किसी एक चैनल को देख लीजिए वो भी टकटकी लगाए हुए तो जाने। अखबारों का बेड़ा गर्क परिशिष्टों ने किया तो बहसों ने खबरिया चैनलों का। समाचार में विचार खबरों का महत्व कम कर देते हैं तो टीवी पर होने वाली बहसों में ऐंकरों की भूमिका बहसों का महत्व। हां अत्यधिक विज्ञापन दोनों का।
विज्ञापन समाचार का हत्यारा है वो भी गैर इरादतन नहीं।