राम विलास पासवान का जाना, दलित राजनीति में बड़ा शून्य

देहरादून : केंद्रीय उपभोक्ता, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मामलों के मंत्री, लोकजनशक्ति पार्टी के संस्थापक और दलित समाज के कद्दावर नेता राम विलास पासवान का देहावसान भारतीय दलित राजनीति में एक ऐसी खाली जगह बना गया है, जिसे जल्दी भर पाना आसान नहीं होगा।
रामविलास उन नेताओं में से थे, जिन्होंने वर्षों तक मेहनत कर बिहार की राजनीतिक ज़मीन पर बड़ी जगह बनाई थी। वह इस समय केंद्र सरकार में मंत्री थे। करीब पांच दशक तक राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने वाले रामविलास को मौसम वैज्ञानिक भी कहा जाता था। वे चुनावी माहौल देखकर ही भविष्यवाणी कर देते थे कि हवा का रुख किसके पक्ष में जाएगा और चुनाव में कौन सी पार्टी सत्ता पर काबिज होगी।

देश के अग्रणी दलित नेता के तौर पर पहचान बनाने वाले रामविलास कई दलों में रहे। वह 1970 में बिहार की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े। लोकदल बिहार, जनता पार्टी, जनता दल से जुड़े रहे. वह कई दलित संगठनों के अध्यक्ष, महासचिव भी रहे। 28 नवम्बर 2000 में उन्होंने लोकजनशक्ति पार्टी बनाई, जिसकी जिम्मेदारी अब बेटे चिराग के हाथ में हैं।

रामविलास के व्यक्तित्व की विशेषता थी कि विरोधी दलों के नेताओं से भी उनके अंतरंग संबंध रहे। दलितों के अग्रणी नेता के रूप में पहचान बनाने वाले रामविलास ने कभी भी नफरत की राजनीति नहीं की। यही कारण है कि उन्हें उच्च वर्ग के लोगों का समर्थन भी हासिल था और चुनाव में उन्होंने रिकार्ड मतों से जीत हासिल की।

बाबू जगजीवन राम, कांशीराम, मायावती जैसे तमाम दलित नेताओं के दलितों के रहनुमा बनने के दावों के बावजूद रामविलास दलित राजनीति के ऐसे मजबूत स्तम्भ थे, जिन्हें उनकी जगह से कोई डिगा नहीं पाया। वे ऐसे राजनेता थे, जिनका समर्थन हासिल करने के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ होने वाली पार्टियां लालायित रहती थीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि सन् 2004 में उनका समर्थन हासिल करने के लिए यूपीए की चेयरमैन सोनिया गांधी पैदल ही उनके आवास पर गई थी।

पासवान ऐसे राजनेता थे, जो कि सन् 1977 में बिहार की हाजीपुर सीट से जनता पार्टी के टिकट पर कांग्रेस उम्मीदवार को सवा चार लाख से ज़्यादा मतों से हराकर पहली बार लोकसभा में पैर रखा था। रिकार्ड मतों से जीत होने के कारण उनका नाम गिनीज बुक आफ रिकार्ड्स में दर्ज हो गया था।

रामविलास पासवान नौ बार सांसद रहे। अपने 50 वर्ष के सियासी सफर में केवल 1984 और 2009 में उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा। 1989 के बाद से नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की दूसरी यूपीए सरकार को छोड़ वो हर प्रधानमंत्री की सरकार में मंत्री रहे।

वो तीसरे मोर्चे की सरकार में भी मंत्री रहे, कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार में भी और बीजेपी की अगुआई वाली एनडीए सरकार में भी।. वो देश के इकलौते राजनेता रहे, जिन्होंने विपरीत विचारधारा वाले छह प्रधानमंत्रियों की सरकारों में मंत्रिपद संभाला।

विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर, एचडी देवगौड़ा, आईके गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकार में अपनी जगह बना सकने के उनके कौशल पर ही कटाक्ष करते हुए एक समय में उनके साथी और बाद में राजनीतिक विरोधी बन गए लालू प्रसाद यादव ने उन्हें राजनीति का ‘मौसम वैज्ञानिक’ कहा था.

कहा जाता है, अपने सारे राजनीतिक जीवन में पासवान केवल एक बार हवा का रुख़ भांपने में चूक गए, जब 2009 में उन्होंने कांग्रेस का हाथ झटक लालू यादव का हाथ थामा और उसके बाद अपनी उसी हाजीपुर की सीट से हार गए जहाँ से वो रिकॉर्ड मतों से जीतते रहे थे, लेकिन उन्होंने अपनी उस भूल की भी थोड़ी बहुत भरपाई कर ली, जब अगले ही साल लालू यादव की पार्टी आरजेडी और कांग्रेस की मदद से उन्होंने राज्यसभा में जगह बना ली।

आज हाथरस कांड जैसी घटनाओं के बाद उत्पन्न जातीय तनाव को दूर करने के लिए पासवान जैसे नेताओं की सख्त जरूरत है। मौजूदा वक्त में बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव के वक्त उनका देहावसान दलित राजनीति के लिए बहुत बड़ी क्षति है। वे ऐसे राजनेता थे, जिनकी छवि हमेशा बेदाग रही। न तो भ्रष्टाचार का कोई दाग उन पर लगा और न ही क्षेत्रीय दलों की तरह जातीय वैमनस्यता को हवा देने का कलंक।

पासवान के देहावसान से दलितों को संविधान और क़ानून में दिए गए अधिकारों पर किसी तरह की आंच आने पर खुलकर उनकी हिमायत करने वाले नेता के रूप में जो शून्य उपजा है, उसकी भरपाई बहुत मुश्किल है।

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